दक्षिण दिल्ली की सरोजिनी नगर मिनी मार्केट असोसिएशन के अध्यक्ष अशोक रंधावा न केवल दिल्ली में बल्कि देश के व्यापारिक जगत में अपने सामाजिक कार्यों के बारे में जाने जाते हैं। फिर चाहे समझौता एक्सप्रेस में जान गंवाने वाले मुसाफ़िरों के परिवार हों या नेपाल में प्राकृतिक आपदा के शिकार हुए लोग हों, अशोक रंधावा अपने साथियों सहित वहाँ पहुँच राहत के कामों में जुट जाते हैं। अशोक रंधावा साउथ एशिय़न फॉरम ऑफ़ पीपल अगेंस्ट टैरर एनजीओ के संस्थापक व अध्यक्ष भी हैं। आपको याद होगा, सन् 2005 में दिल्ली में हुए सीरियल बम-धमाकों में सरोजिनी नगर मार्केट में भी कई लोगों की जानें गईं थीं। उस समय अशोक रंधावा ही पहले ऐसे शख़्स थे जो लोगों की मदद को सबसे पहले पहुँचे थे। आज भी उनकी स्मृति में वह घटना भुलाए नहीं भूलती। अशोक रंधावा ने अपने कई अनुभव साझा किए मनोज बिसारिया के साथ।
प्र. दिल्ली में 2005 हुए सीरियल बम-विस्फोट में आपने लोगों की काफ़ी मदद की थी। क्या हुआ था उस शाम....।
अशोक रंधावा- ये 29 अक्टूबर 2005 की बात है। दीवाली के दिन चल रहे थे। उस समय कई दुकानदारों ने सड़कों पर आतिशबाज़ी और दूसरी तरह की दुकानें लगाई हुई थीं। कोने में एक जूस कॉर्नर था जिसके मालिक का नाम लालचंद था। शाम लगभग साढ़े पाँच बजे के आसपास लालचंद का फ़ोन आया कि उसकी दुकान के आसपास लोगों की भारी भीड़ लगी है। सड़कों से भीड को थोड़ा हटाए जाने कि ज़रूरत है। मैं तुरंत वहाँ पहुँच गया। देखा तो लोगों की भारी भीड़ ख़रीदारी में व्यस्त थी। यहाँ तक कि सड़कों पर चलना तक मुश्किल हो रहा था। मैंने कहा कि इन्हें हटाने के लिए पुलिस की मदद लेनी पड़ेगी। दुकान से कुछ फ़ासले पर पुलिस चौकी है। अभी मैं थोड़ा आगे बढ़ा ही था कि एक तेज़ धमाका हुआ।पलट कर देखा तो चारों ओर सिर्फ़ धुँआ ही धुँआ दिखाई दिया। लोगों की चीख-पुकार सुनाई दे रही थी। मैं वापस लौट पड़ा। तुरंत फ़ायर ब्रिगेड को फ़ोन किया। मैंने अपने कुछ साथियों को इकट्ठा किया और आतिशबाज़ी का सामान बेच रहे दुकानदारों को हटाया क्योंकि अगर उनमें आग़ लग जाती तो कई गुना नुकसान और हो जाता। श्याम जूस कॉर्नर पर हुए विस्फोट से चारों ओर आग लग गई थी। हम कुछ भी देख पाने में असमर्थ थे। थोड़ी ही देर में जब फ़ायर ब्रिगेड की गाड़ी आई तो कुछ धुँआ छंटा, हमने तब चारों ओर लाशें ही लाशें देखीं। बहुत-से घायल लोग तड़प रहे थे। हम तुरंत राहतके काम में जुट गए। आसपास के कुछ दुकानदारों से चादरें मंगवाईं और उनमें घायल लोगों को उठा-उठाकर रखा। इस दौरान पुलिस की गाड़ियाँ ओर एंबूलेंस भी आ चुकी थीं। तब पता चला कि कुछ ही देर पहले पहाड़गंज में भी ऐसा ही बम-विस्फोट हुआ है। ज़मीन पर गिरे लोगों को उठाते समय हमें पता ही न था कि इनमें कौन ज़िंदा है और कौन नहीं। मैं आज भी वो मंज़र नहीं भूला हूँ जब एक व्यक्ति को उठाते समय उसका कटा हाथ हमारे हाथ में आ गया....सच बड़ा ही दिल दहला देने वाला दृश्य था उस शाम जिसे मैं ज़िंदगी भर नहीं भूल सकता।
प्र. कितने लोग उस शाम बम-धमाके का शिकार हुए थे।
अशोक रंधावा- लगभग 127 लोग घायल हुए थे और 50 लोग इस धमाके में मारे गए थे जिनमें 12 लोग मिसिंग थे जिनकी डेड बॉडी नहीं मिली।
प्र. इस घटना के बाद ही क्या आपने अपने एनजीओ की नींव डाली।
अशोक- जी, आप ऐसा कह सकते हैं। इस घटना के बाद हमें लगा कि समाज के प्रति हमारी भी बड़ी ज़िम्मेदारी है। मैंने अपने कुछ साथियों के साथ इस संस्था की शुरुआत की ताकि एक बैनर तले काम करने में हम सब को आसानी हो। सरोजिनी नगर बम-धमाके में मारे गए लोगों के परिवारों की हमने कई तरह से मदद की, कभी मुआवज़े के लिए, कभी अस्पताल में घायलों के लिए ख़ून देने या उनके रिश्तेदारों के लिए ख़ाने-पीने की व्यवस्था करना जैसे कई काम थे जो हमने अपने स्वयं के साधनों से किए। अब इस हादसे में जो 12 लोग मिसिंग थे, हमने उनके परिवारों की डीएनए जाँच करवाई जिनमें 7 की पहचान हो गई थी। लोगों की इस प्रकार की मदद करना मेरा उद्देश्य बन गया।
प्र. समझौता एक्सप्रेस हादसे के दौरान भी आपका संगठन लोगों की मदद को सामने आया। उस समय पाक के नागरिकों की भी आपने मदद की थी। कुछ इस विषय में बताएँ।
अशोक- 2007 में पानीपत के निकट समझौता एक्सप्रेस में ब्लास्ट हुआ था। गाड़ी पाकिस्तान जा रही थी। हमें जैसे ही पता चला हम अपने कुछ साथियों के साथ वहाँ जा पहुँचे। घायलों को अस्पतालों में भर्ती कराया। अब जो लोग बुरी तरह जल गए थे उन्हें दिल्ली के सफ़दरजंग अस्पताल में भर्ती करवाया। घायलों के साथ उनके रिश्तेदारों की भीड़ भी अस्पतालों में जुट जाती है। तब हमने सोचा कि घायलों का इलाज तो अस्पताल में चल ही रहा है। ये लोग कैसे रहेंगे। मैंने तब अपने साथियों की मदद से ऐसे तमाम लोगों के लिए सुबह के नाश्ते से लेकर दोनों टाइम के भोजन की व्यवस्था की। अब सर्दियों के दिन थे, उनके लिए रज़ाई और कंबलों का इंतज़ाम भी किया। इनमें से लगभग 26-27 लोग पाक के थे। चार दिन तक हमने उनका ख़्याल रखा, पाँचवें दिन वे वापस पाक चले गए। एक पाक परिवार रह गया था, राणा शौक़त अली का जिनके पाँच बच्चों की मौत इस हादसे में हुई थी। उनकी बस 1 साल की एक बच्ची जिंदा बची थी जो घटना के वक़्त अपनी माँ की गोद में थी। अब आईसीयू में दोनों माँ-बाप अपने बच्चों को याद कर-करके रोया करते थे। हम उन्हें जाकर समझाया करते थे। साथ ही हम उनकी जितना संभव होता मदद भी करते। हमने पानीपत जाकर उनके पाँचों बच्चों के शव उन्हें दिलवाने में मदद की। हमारी सरकार ने उन्हें 10 लाख का मुआवज़ा देने की घोषणा की थी, वह मदद दिलवाने में भी हमने उनकी सहायता की। दिल्ली में 2008 में हुए बम-धमाकों में भी बहुत से लोगों की जानें गई थीं। उस समय भी हमने लोगों की काफ़ी मदद की जिनमें घायलों को अस्पताल ले जाने से लेकर उनके रिश्तेदारों के खाने-पीने, ठहराने तक का इंतज़ाम किया। इसके अलावा ऐसे घायलों या मृतकों को सरकार की ओर से जो मुआवज़ा दिया जाता है, उसमें कई क़ानूनी पेचीदगियाँ होती हैं। अब जो लोग पढ़े-लिखे नहीं होते, उन्हें क्लेम करने में काफ़ी परेशानी का सामना करना होता है तो ऐसे लोगों की मदद भी हम करते रहे हैं। कई बार हमें इसके लिए कोर्ट में भी गुहार लगानी पड़ी जिसका ख़र्चा भी हम ख़ुद ही उठाते हैं। दिल्ली में 2011 में हाई कोर्ट के पास भी बम धमाके हुए थे, हमने तब भी काम किया। इसके अलावा अस्पतालों में मरीज़ का इलाज ठीक से हो भी रहा है या नहीं, हम इस बात पर भी अस्पताल प्रशासन से ताल-मेल बनाए रखते हैं। कई बार ऐसा भी हुआ जब हमने मीडिया के माध्यम से लापरवाही बरतने वाले अस्पतालों की शिकायत भी की। इससे हमें कई लोगों की नाराज़गी भी झेलनी पड़ी। ऐसा भी कई बार हुआ जब मरीज़ को महंगी दवाओं या ख़ून की ज़रूरत पड़ी, तब हमने उसका भी इंतज़ाम किया।
प्र. क्या लोगों से किसी प्रकार की आर्थिक मदद भी लेते हैं।
अशोक- हम किसी से कभी कुछ नहीं माँगते। हमारे साथी दुकानदार जो भी सामान देना चाहें, हम ले लेते हैं लेकिन किसी से हम चंदा उगाहें या सरकार से मदद की गुहार लगाएँ, हम ऐसा कभी नहीं करते। आज हमारी अपनी एनजीओ है लेकिन हमने आज तक कभी सरकार से कोई मदद नहीं माँगी। हम जो भी करते हैं उसे समाज के प्रति अपना कर्त्तव्य मानते हुए अपने बूते करते हैं जिसमें मुझे अपनी पत्नी गीता और बेटे लक्ष्य का भी सहयोग मिलता है।
वैसे सच कहूँ, हमें भी पता नहीं चलता कि धन का प्रबंध कैसे हो जाता है। ऊपर वाला न जाने किस रूप में आकर हमारे कामों को सफल बना देता है। राहत-कार्यों के दौरान कोई दुकानदाग आटे की थैलियाँ दे जाता है, कोई घी का कनस्तर, तो कोई सब्ज़ियों के बोरे भिजवा देता है। सबके सहयोग और ईश्वर की कृपा से हमारा काम चल जाता है।
यहाँ एक रोचक बात आपको बताना चाहूँगा कि एक बार कालका जी से दो बुज़ुर्ग महिलाएँ मेरे पास आईं और उन्होंने हमें चंदा देना चाहा। मैंने कहा कि अभी तो फ़िलहाल हम किसी राहत-कार्य में नहीं जुटे हैं, तो ऐसे में हम कोई चंदा नहीं ले सकते। वे महिलाएं नहीं मानीं और ज़बरदस्ती मेरी दुकान पर इक्कीस हज़ार रुपए रख गईं कि किसी अच्छे काम में हमारी ओर से लगा देना। मैं अभिभूत हो गया कि लोग, हमारे कामों से जुड़ रहे हैं।
प्र. देश में कहीं भी कोई हादसा होता है तो आप और आपकी टीम तुरंत राहत के कामों में जुट जाती है। नेपाल में भी आपने राहत कार्य किए, वहाँ लोगों की किस प्रकार से मदद की थी।
अशोक- 2015 में नेपाल में भूकंप आया था जिसमें लगभग नौ हज़ार लोगों की जानें गई थीं और बाइस हज़ार से अधिक लोग घायल हुए थे। उस समय हम लोगों को लगा कि हमें भी कुछ करना चाहिए। नेपाल दूतावास और भारत सरकार से अनुमति लेने के बाद हम कई ट्रक राहत-सामग्री लेकर नेपाल पहुँचे। वहाँ जाकर हमने जगह-जगह टैंट लगाए जहाँ लोगों को खाने-पीने से लेकर आवास ओर चिकित्सा तक की सुविधाएँ हमने मुहैया करवाईं। वहाँ के प्रशासन से भी हमें काफ़ी सहयोग मिला। कई बार हम ऐसे गाँवों में भी गए जहाँ किसी की मदद पहुँची ही नहीं थी। भूकंप के हल्के झटके वहाँ आते रहते थे, ऐसे समय में भी हमारे वॉलंटियर्स काम में जुटे रहे। इसके अलावा वहाँ लोगों का घर बनवाने और उनकी मरम्मत करने जैसे कई काम भी हमने किए। जब वहाँ से चलने लगे तो हज़ारों की तादाद में लोग हमें विदा करने के लिए आए थे, इसे देख हम सबकी आँखें नम हो उठीं थीं।
प्र. अपने व्यापारी बंधुओं से क्या कहना चाहेंगे।
अशोक- व्यापार कीजिए लेकिन मन में हमेशा दूसरों के भले की भी सोच रखिए। भगवान न करे,हमारे देश में या दुनिया में कहीं कोई हादसा हो, लेकिन ऐसी नौबत आने पर कभी मदद करने से पीछे न हटें। याद रखिए, परोपकार में ख़र्च किया गया आपका पैसा, कई गुना बढ़कर वापस आ जाता है। मेरा मानना है कि परोपकार ही सबसे बड़ा धर्म है।