शादियों में फूफा


नौजवानों का पसंदीदा काम होता था गाँव की गलियों में घूमना और हालात का जायज़ा लेना कि किस घर में उनका घर बसाने की क्षमता मौजूद है।

एक बार टारगेट सेट करने के बाद लक्ष्य रखा जाता था अगले साल खुद की बारात लेकर इसी गाँव में आने का और इस शुभ कार्य में मदद करती थी इस बारात वाली दुल्हन, जो वरपक्ष के यहाँ जाकर इन नौजवानों की भाभी हो जाने वाली थी।

संजीव वर्मा | 25 Apr 2020

 

पहले जमाने में जब शादियाँ हुआ करती थी तो बारातें पन्द्रह- पन्द्रह दिन रुका करती थी। गरीब से गरीब व्यक्ति की बेटी की शादी में भी बारात का सप्ताह भर रुकना लाजमी था।

बारात प्रवास के दौरान सारा गाँव बारातियों की आवभगत में जुटा होता था।

बारात के ठहरने का प्रबंध अकसर किसी बारात घर या धर्मशाला या गाँव के स्कूल में किया जाता था। बारात आने से पहले गाँव के सभी घरों से चारपाइयाँ और बिस्तर इकट्ठा किये जाते थे। पास के कुएं पर चार-पांच बाल्टियां और लोटे रख दिये जाते थे और रखी जाती थी दो चार काली साबुनें। बारातियों के लिए नाई, धोबी आदि की विशेष व्यवस्था होती थी।

बारात में आये बड़े बूढ़ों का काम था नहा धोकर नाश्ता पानी करके ताश खेलना और टाब्बर का काम था इधर उधर भटकना, बागों में काई डंडा और गिन्दो टोहरा खेलना... मल्लब काम वही सब थे, बस थोड़ा शान ओ शौकत के साथ।

बड़े- बूढ़ों और इन टाब्बरों के अलावा एक और वैरायटी होती थी बारात में, वो नौजवान जिनकी मूँछें अभी फूट रही होती थीं।

इन नौजवानों का पसंदीदा काम होता था गाँव की गलियों में घूमना और हालात का जायज़ा लेना कि किस घर में उनका घर बसाने की क्षमता मौजूद है।

एक बार टारगेट सेट करने के बाद लक्ष्य रखा जाता था अगले साल खुद की बारात लेकर इसी गाँव में आने का और इस शुभ कार्य में मदद करती थी इस बारात वाली दुल्हन, जो वरपक्ष के यहाँ जाकर इन नौजवानों की भाभी हो जाने वाली थी।

अब बात करते हैं बारात में आये कुछ विशेष बूढ़ों की। इन्हें सब फूफा के नाम से जानते हैं। इनका काम फूं फा करना होता है इसलिए इनका नाम ही फूफा रख दिया गया।

अब रात हो जाती है... गाँव में बिजली आती नहीं, जाती थी और जब जाती थी तो महीनों नहीं आती थी। तो बारातियों के लिए प्रकाश की व्यवस्था की जाती है मगर दुर्भाग्य से जो पंचलाइट जलाई जाती है उसके मेन्टल को कोई टाब्बर छेड़ देता है और वह बुझ जाती है। अब क्या करें।

ऐसे समय में उस यंत्रा का ख्याल आता है जो कालांतर में राष्ट्रीय जनता दल का चुनाव चिह्न भी बना। हाँ हां, सही पहचाना लालटेन।

तो लालटेन जल जाती और अब बारी आती फूफाओं की।

लालटेन की लौ अगर थोड़ी कम है तो फूफाओं का राग चालू... अरे किसने इतनी धीमी करी इसकी लौ!!! कुछ दिखाई भी नहीं दे रहा। और जब तुम्हारा बौंत नहीं था बुलाने का तो बारात बुलाई क्यों? अब कोई इनसे पूछे कि बारात न बुलाते थे तुम्हारा यह छौरा जो दूल्हा बना बैठा है, इधर उधर दूसरों की थाली में मुँह मारता फिरता!

खैर किसी बालक को लगाया जाता जो लालटेन की लौ ठीक करता और फूफा जी की मिजाजपुरसी करता। पड़ोस की दुकान से फूफाजी को बीड़ी का बंडल और दो सिगरेट लाकर देता और पड़ोस के कस्बे से अगले दिन बनारसी पान (22 नम्बर का) लाने का भी वायदा करता।

दूसरी तरफ... लालटेन की लौ अगर थोड़ी ज्यादा हो गई तो भी फूफाओं का राग चालू... अरे किसने इतनी तेज की इसकी लौ!!! हमारी आंखे चुंधिया गयी। हमे अंधा ही करके मानोगे क्या?

तो कुल मिलाकर इन फूफाओं को कुछ न कुछ कहना है। सरकार अगर एहतियातन कुछ कठोर कदम उठाये तो उनको गलत लगता है। अगर सरकार वेट एंड वॉच का कदम उठाये तो भी उनको गलत लगता है। इन फूफाओं को अपनी छाती कूटने से मतलब, बारात चाहे किसी की भी हो। समझे कि नाहीं!


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