महामारी के चलते सरकार, लोगों के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए जागरूक है। प्रारंभ में जो तमाम कठिनाइयां उभर आई थीं, वे धीरे-धीरे दूर होती दिख रही हैं। चूंकि भारत दुनिया का दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला देश है और उसे यकायक खुद को तमाम बंधनों में बांधना पड़ा, इसलिए कुछ न कुछ समस्याएं तो बनी ही रहेंगी। इन समस्याओं का सामना और समाधान करते हुए लॉकडाउन के शेष समय संयम के साथ व्यतीत करने के अलावा और कोई उपाय नहीं।
इस दौरान कहीं कोई बड़ी समस्या न खड़ी होने पाए, यह सरकारों और उनकी एजेंसियों के साथ समाज को भी देखना होगा। महामारी को रोकने के साथ-साथ सरकार को किसानों की समस्याओं की ओर भी देखना होगा ताकि लॉकडाउन के चलते देश में अनाज की कमी न हो। इस समय किसानों को फसल कटाई की चिंता है और उसके बाद फसल के दाम आधे मिलने को लेकर भी उम्मीदें डूबती नजर आ रही हैं। गेहूं, चना, प्याज, मटर की आवक तो बाजार में शुरू होने वाली है।
कोरोना वायरस से मुर्गी पालन उद्योग को भारी नुकसान हो रहा है। उपभोक्ता मांस, मछली, चिकन और अन्य मांसाहारी उत्पाद खरीद ही नहीं रहे हैं जिसके चलते दामों में भारी गिरावट आ चुकी है। भारत मांस का प्रमुख निर्यातक है लेकिन आयातक देशों द्वारा आयात पर प्रतिबंध लगाने के कारण सब कुछ ठप्प पड़ा है। भारत में असंगठित क्षेत्र में 86 फीसदी लोग काम करते हैं। शहरों में छोटा-मोटा काम करने वाले श्रमिकों, फैक्टरी कर्मचारियों, दिहाड़ीदार मजदूरों के लिये काम बंद है। लोगों की आमदनी घटने, काम बंद होने, नौकरी जाने या मजदूरी का काम नहीं मिलने के कारण ये लोग शहरों से अपने गांवों की ओर पलायन कर चुके हैं।
गांवों की ओर पलायन करते बदहवास लोगों का दृश्य तो वर्तमान युवा पीढ़ी ने पहले कभी नहीं देखा होगा। किसानों को कटाई के लिये मज़दूर नहीं मिल रहे हैं। बड़े किसान तो हारवेस्टर कम्बाईनों से कटाई कर लेंगे लेकिन फसल के लदान के लिये उन्हें भी मजदूरों की जरूरत पड़ेगी। छोटे किसानों को भी मजदूरों की जरूरत पड़ेगी। केंद्र और राज्य सरकारें मजदूरों का पलायन करने से रोकने के लिये सख्त कदम उठा रही हैं और उनके लिये भोजन की व्यवस्था कर रही है।
अगर देश का कृषि क्षेत्र लड़खड़ाता है तो समूची अर्थव्यवस्था ही प्रभावित होगी। सड़कों पर मांगने वाले सिर्फ दिहाड़ी मजदूर ही नहीं, इनमें ऐसे लोग भी शामिल हैं जो नौकरी करते हैं। जिन छात्रों को पेइंग गैस्ट या हॉस्टल खाली करने का बोल दिया गया है, उनके आगे भी रहने की समस्या खड़ी हो गई है। कई लोग बाइक, साइकिल या रिक्शा लेकर ही अपने घरों को चल पड़े। ऐसा दिल्ली, पंजाब, हरियाणा में भी हुआ।
यद्यपि केंद्र सरकार ने कृषि क्षेत्र को लॉकडाउन के नियमों से छूट दी है। सरकार ने मंडी, खरीद एजेंसियों, खेती से जुड़े कामकाज, भाड़े पर कृषि मशीनरी देने वाले केन्द्रों के साथ ही कृषि से संबंधित सामान के राज्य के भीतर और अंतर्राज्यीय परिवहन को भी लॉकडाउन से मुक्त कर दिया है। सरकार ने कृषि मजदूरों को काम पर जाने के साथ ही उर्वरक, कीटनाशक और बीज उत्पादन एवं पैकेजिंग यूनिटों को भी लॉकडाउन से मुक्त करने का निर्देश दिया है। सबसे बड़ी समस्या तो कटाई के बाद फसल भंडारण की है। वर्तमान स्थिति में यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि कृषि के साथ-साथ शहरों में उद्योगों का अस्तित्व ग्रामीण मजदूरों पर टिका है। अगर लघु एवं कुटीर उद्योगों के साथ फैक्ट्रियों के लिए मजदूर ही काम पर नहीं आए तो उत्पादन प्रभावित होगा ही।
23 जून 1946 को ‘हरिजन’ में छपे एक लेख में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने लिखा था- ग्रामीण रक्त ही वह सीमेंट है जिससे शहरों की इमारतें बनती हैं। अगर मजदूर ही नहीं मिलेंगे तो शहरों में निर्माण कार्य कैसे होंगे। दूसरी ओर मजदूरों के पलायन से बिहार, उत्तर प्रदेश और राजस्थान बड़े जोखिम की ओर बढ़ रहे हैं। अगर इन राज्यों के ग्रामीण क्षेत्रों में कोरोना वायरस का विस्फोट हुआ तो संभालना मुश्किल हो जाएगा। सड़कों पर भीड़ के निकलने से संक्रमण का खतरा बढ़ चुका है और इन राज्यों के ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाएं न के बराबर हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं कि लॉकडाउन लम्बा चला तो भारत में खाद्यान्न की कोई कमी नहीं होगी। सरकार राशन कार्ड धारकों को पात्रता से अधिक खाद्य सामग्री दे रही है परन्तु पिछले कुछ वर्षों से कृषि और उससे जुड़े क्षेत्रों में स्थिति बदतर हुई है। वास्तविक आय और मजदूरी में न के बराबर वृद्धि हुई है। कृषि के फायदेमंद न रहने के चलते किसानों की संख्या घट रही है। पिछले कुछ समय से कृषि विकास दर तीन फीसदी से कम रही है। 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के लिए 15 फीसदी कृषि विकास दर की जरूरत है जो कि असंभव है।
कृषि लागत बढ़ी है लेकिन मांग लगातार कमजोर हो रही है। कोरोना संकट के चलते कृषि क्षेत्र को चपत तो लगेगी ही, सरकार को खेती को बचाये रखने के लिए कुछ और उपाय करने होंगे। किसान निधि की राशि को 6 हजार से अधिक बढ़ाना होगा। तभी किसानों की उम्मीद बरकरार रहेंगी। सबसे बड़ी बात तो यह है कि मजदूरों के भरोसे को कैसे कायम किया जाए। यह काम तो सरकारों का ही है।