/ नरेंद्र देवांगन
कोरोना वायरस से उपजी महामारी ने तमाम देशों की अर्थव्यवस्था को जबरदस्त नुकसान पहुंचाया है। हमारा देश भी इससे अछूता नहीं। बावजूद इसके हमारा देश इस संकट से जूझते हुए अपनी व्यवस्था को पुनः सुचारू कर लेगा, ऐसी आशा है किंतु इन सबके लिए हमारी कृषि प्रधानता वाली रीति-नीति में कुछ ठोस व्यापक कदम उठाने होंगे, जिससे खासकर हमारे अन्नदाता को कोई विशेष आर्थिक नुकसान का सामना न करना पड़े।
औद्योगिक इकाइयों से लेकर सभी कारोबार अपने पुराने दिन वापस पाने की कोशिश में हैं। वे इसके लिए इंतजार भी कर सकते हैं मगर खेती इंतजार नहीं कर सकती। कोरोना वायरस संक्रमण की वजह से चारों तरफ बेचैनी का माहौल है और सबसे ज्यादा बेचैनी तो ग्रामीण क्षेत्रों में है। वहां चुनौती दोहरी है। ग्रामीण क्षेत्र को इस वायरस के संक्रमण से बचाना है, साथ ही इसकी वजह से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को जो गहरा आघात लगा है, उससे भी उबरने का काम तुरंत जरूरी है।
यह समस्या इसलिए भी बड़ी हो सकती है कि लॉकडाउन की वजह से शहरी क्षेत्रों से गांवों की ओर भारी पैमाने पर पलायन हुआ है यानी वहां के पहले से ही कम संसाधनों में हिस्सेदारी बंटाने वालों की संख्या बढ़ गई है। इसलिए जरूरी है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए गांवों के लिए अतिरिक्त अनाज उपलब्ध कराया जाए। इसके साथ ही मनरेगा जैसी योजनाओं पर भी पहले के मुकाबले ज्यादा ध्यान देना जरूरी है। यह समय शहरों से गांव पहुंचे श्रमिकों को विश्वास में लेने का भी है। एक तरफ उन्हें आश्वस्त करने की जरूरत है कि लॉकडाउन खत्म होने के बाद वे वापस सकुशल अपने पुराने काम में लौट सकेंगे। दूसरी तरफ वह व्यवस्था बनानी भी जरूरी है कि शहरों के उद्योग पहले की ही तरह फिर से सक्रिय हों।
देश में जब से लॉकडाउन हुआ है, किसानों को रबी की फसल की कटाई एवं बिक्री, गन्ने की फसल की बिक्री व भुगतान और आलू की फसल की निकासी की चिंता है। फसल समय पर नहीं कटेगी तो आगे धान, ज्वार, मक्का, गन्ना, सोयाबीन, बाजरा, मूंगफली, तूर और मूंग जैसी फसलों की बुवाई में भी दिक्कत आएगी। दूसरी ओर, फल, सब्जी व बागवानी करने वाले किसान और डेयरी किसान बुरी तरह से परेशान हैं। कई राज्यों में गेहूं की बंपर पैदावार व उसकी खरीदी के पश्चात उसके संग्रहण हेतु भंडारों की बड़ी मात्रा में जरूरत है लेकिन इन राज्यों में अनाज के भंडारण की उचित व्यवस्था नहीं है। भंडारों की कमी कहां से पूरी होगी, यह अभी तक तय नहीं है।
गौरतलब है कि विभिन्न राज्यों में गत वर्ष खरीदे गए अनाजों का बंपर स्टॉक अभी भी जमा है जबकि इस वर्ष नए गोदामों का निर्माण नहीं हो पाने के कारण इसका सुरक्षित भंडारण किस तरह और कहां से हो सकेगा, यह एक बड़ा प्रश्न है। बड़ी मात्रा में सरकार द्वारा खरीदा जाने वाला अनाज अस्थाई तिरपाल में ढककर खुले में ज्यादा दिन नहीं रखा जा सकता क्योंकि जून के अंत तक आते-आते मानसून कई प्रदेशों में दस्तक देने लगता है। अतः अल्प समय में अनाज के भंडारण की विशाल व्यवस्था को एक साथ संभालने में कठिनाई आ सकती है।
जो सब्जियां या फल जल्दी खराब हो जाते हैं। उनको उगाने वाले किसानों के लिए तो यह बहुत बड़ा संकट है। बागवानी की उपज का कोई खरीदार नहीं है। कई फसलें खेतों में ही सड़ रही हैं। कृषि क्षेत्र का यह संकट आगे चलकर देश की खाद्य सुरक्षा को खतरे में डाल सकता है। फसल की खरीद का फिलहाल एक बेहतर तरीका यह हो सकता है कि सरकार राज्यों में उपलब्ध भू-अभिलेखों और अन्य सूचनाओं के आधार पर, संचार साधनों का बेहतर इस्तेमाल करते हुए किसानों में रबी की फसल बेचने के लिए खुद ही संपर्क करे।
सरकारी खरीद शुरू होने पर मंडियों में कोरोना वायरस के मद्देनजर बड़ी मात्रा में किसानों, हमालों, तुलावटियों तथा संस्थागत अमले के बीच सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कैसे हो जाएगा, यह भी सोचने का विषय है। बड़ी मात्रा में सूती टाट व प्लास्टिक बारदाने की कमी को भी पूरा करना पड़ेगा। किसानों की एक संख्या को एक दिन का समय आवंटित किया जाए ताकि वे तय दिन और समय पर खरीद केंद्र पर पहुंचें। इससे क्रय केंद्रों पर भीड़ भी नहीं लगेगी और संक्रमण फैलने का खतरा भी कम होगा। जिस दिन किसान अपनी फसल बेचे, उसी दिन उसे उसके खाते में भुगतान मिलना चाहिए। कृषि व्यापार करने वाले जितने भी आढ़ती हैं, उनको यह स्पष्ट निर्देश देना होगा कि रबी की फसल की सारी खरीदी न्यूनतम समर्थन मूल्य पर करनी है। इससे किसान बिना किसी झिझक और डर के अपनी फसल बेच पाएगा।
रिपोर्ट कल के खतरे को लेकर चेतावनी दे रही है लेकिन उससे भी बड़ा सवाल तो यही है कि अगर 40 करोड़ मजदूर काम करने की स्थिति में नहीं होंगे या फिर बेरोजगार हो जाएंगे तो इसका असर देश की वित्तीय- व्यवस्था पर कितना गंभीर होगा? उससे भी बड़ा सवाल हमारे विकास के मॉडल पर भी खड़ा होगा जिसने विकास की परिभाषा को सिर्फ शहरों तक सीमित कर दिया है। उसी विकास की चकाचौंध में लोग गांवों से पलायन कर शहरों की ओर बढ़ रहे हैं। अब जब संकट का वक्त आया तो यही लोग गांव वापस लौट गए हैं, लेकिन सवाल यही पर है कि आखिर गांव में इनके लिए रोजगार कहां है?
अगर रोजगार नहीं होगा तो फिर ये क्या करेंगे, क्या लौटकर शहरों में आएंगे? मंदी की मार झेल रहे शहर क्या इन्हें वापस काम दे पाएंगे? सवाल कई हैं लेकिन उन सबके बीच में जवाब सिर्फ एक ही है कि हमें गांवों को भी समृद्धि संपन्न बनाना होगा। गांवों के भीतर ही रोजगार विकसित करने होंगे। हमें गांव के भीतर होने वाले पलायन को रोकने के लिए रास्ता विकसित करना होगा।