मुद्दा
पिछले कुछ महीनों से विश्व स्वास्थ्य संगठन लगातार सुर्खियों में है। संयुक्त राष्ट्र की यह एजेंसी कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने के लिए सुझाव दे रही है, वैज्ञानिकों का डाटा जमा कर रही है और जहां विशेषज्ञों की जरूरत है, उन्हें मुहैया करा रही है हालांकि इस कोरोना महामारी से निपटने के तरीके को लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन की कई जगह निंदा भी हुई है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने तो यहां तक कह दिया कि अब विश्व स्वास्थ्य संगठन को दी जाने वाली मदद राशि को रोक देगा। ट्रंप के इस फैसले ने दुनिया को हैरान कर दिया।
ट्रंप ने विश्व स्वास्थ्य संगठन पर चीन का पक्ष लेने और महामारी को बेहद बुरी तरह से संभालने का आरोप भी लगाया है। संगठन के सबसे बड़े वित्त पोषक अमेरिका ने उसके बरताव से आहत होकर आर्थिक सहायता फिलहाल रोक दी है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप में इस आशय का निर्णय विश्व को बताते समय बगैर लाग लपेट के वह सारे आरोप दुनिया के सामने उछाल दिए हैं जिनका जवाब विश्व स्वास्थ्य संगठन की वर्तमान कमान को हर हाल में देना होगा।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की शुरूआत 1948 में हुई। इसे दो तरह से धन मिलता है। पहला, एजेंसी का हिस्सा बनने के लिए हर सदस्य को एक रकम चुकानी पड़ती है। इसे ‘असेस्ड कॉन्ट्रीब्यूशन‘ कहते हैं। यह रकम सदस्य देश की आबादी और उसकी विकास दर पर निर्भर करती है। दूसरा है ‘वॉलंटरी कॉन्ट्रीब्यूशन‘ यानी चंदे की राशि। यह धन सरकारें भी देती हैं और चैरिटी संस्थान भी। राशि किसी न किसी प्रोजेक्ट के लिए दी जाती है। बजट हर दो साल पर निर्धारित किया जाता है। वर्ष 2020 और 2021 का बजट 4.8 अरब डॉलर है।
अमेरिकी राष्ट्रपति अकेले नहीं हैं जो विश्व स्वास्थ्य संगठन और चीन के बीच सांठगांठ के आरोप लगा रहे हैं। राजनीतिक जानकार और वैज्ञानिक भी विश्व स्वास्थ्य संगठन पर चीन का साथ देने का आरोप लगा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेश ने कहा है कि कोरोना वायरस के खिलाफ दुनिया की जंग में विश्व स्वास्थ्य संगठन की कोशिशें काफी अहम हैं। उन्होंने यह भी कहा कि ऐसे वक्त में इस वैश्विक संस्था के संसाधनों में कटौती नहीं होनी चाहिए।
ध्यान रहे, विश्व स्वास्थ्य संगठन के कुल बजट का 15 फीसदी हिस्सा अभी अमेरिका से ही आता है। ट्रंप का कहना है कि कोरोना महामारी के कुप्रबंधन और उससे जुड़ी कुछ अहम जानकारियां छिपाने में विश्व स्वास्थ्य संगठन की भूमिका का आकलन किया जाएगा। ट्रंप के इस फैसले की हर तरफ आलोचना हो रही है। चीन ने इसे अमेरिका द्वारा अपनी नाकामी पर पर्दा डालने की कोशिश करार देते हुए इस कदम को अनैतिक करार दिया है।
अमेरिकी उद्योगपति बिल गेट्स ने इस फैसले पर दुख जताते हुए कहा कि ऐसे समय पर, जब पूरी दुनिया में स्वास्थ्य संकट चल रहा है, विश्व स्वास्थ्य संगठन का पैसा रोकना खतरनाक है। संस्था के काम से कोरोना के प्रसार में कमी आ रही है। इसमें अडंगा लगाने की स्थिति में उसकी जगह कोई और संगठन नहीं ले सकता। सच्चाई यही है कि दुनिया को विश्व स्वास्थ्य संगठन की जितनी जरूरत अभी है, उतनी पहले कभी नहीं थी।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की जब शुरूआत हुई थी, तब उसके बजट की करीब आधी रकम सदस्य देशों से असेस्ड कॉन्ट्रीब्यूशन के रूप में आती थी। इस बीच यह सिर्फ 20 प्रतिशत ही रह गई है यानी एजेंसी को ज्यादातर धन अब वॉलंटरी कॉन्ट्रीब्यूशन के रूप में मिल रहा है। ऐसे में एजेंसी उन देशों और संस्थाओं पर निर्भर होने लगी है, जो उसे ज्यादा पैसा दे रहे हैं। वैसे तो बड़ी आबादी के कारण चीन का असेस्ड कॉन्ट्रीब्यूशन भी ज्यादा है लेकिन उसने वॉलंटरी कॉन्ट्रीब्यूशन भी बढ़ाया है। दुनियाभर से आए वॉलंटरी कॉन्ट्रीब्यूशन का 14.6 प्रतिशत अमेरिका से ही आता है। दूसरे नंबर पर कुल 43.5 करोड़ डॉलर के साथ है ब्रिटेन। इसके बाद जर्मनी और जापान का नंबर आता है।
चीन भले ही इस सूची में बहुत पीछे हो लेकिन जानकार मानते हैं कि उसकी अहमियत बढ़ रही है। वहीं अमेरिका अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों से दूर होता चला जा रहा है। जानकारों के अनुसार विश्व स्वास्थ्य संगठन में चीन का योगदान बढ़ने की संभावना यकीनन संयुक्त राष्ट्र की इस एजेंसी के लिए आकर्षक रही होगी। 2030 तक पूरी दुनिया के लोगों को स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचाने का विश्व स्वास्थ्य संगठन का लक्ष्य हो या फिर चीन की ‘हेल्थ सिल्क रोड‘ पहल, चीन सब जगह निवेश कर रहा है। ये ऐसे प्रोजेक्ट हैं जो टेड्रोस और विश्व स्वास्थ्य संगठन के लिए मायने रखते हैं। विशेषज्ञ कहते हैं कि चीन जिस गति से आर्थिक विकास कर रहा है, विश्व स्वास्थ्य संगठन के लिए उसे अपने पक्ष में रखना बहुत जरूरी है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के खर्च और बजट का 30 प्रतिशत अंशदान अकेले अमेरिका करता है। अभी अमेरिका विश्व स्वास्थ्य संगठन को सालाना 40-50 करोड़ डॉलर यानी 30 से 38 अरब रूपए की राशि देता है जबकि चीन मोटे तौर पर सालाना 4 करोड़ डॉलर यानी लगभग 3 अरब रूपए या उससे भी कम रकम अदा करता है। अगर इतनी बड़ी राशि सहायता के तौर पर नहीं मिली तो फिर विश्व स्वास्थ्य संगठन को अपने विशेष कार्यक्रमों और सक्रियताओं पर कटौती करनी ही पड़ेगी। इसीलिए विश्व स्वास्थ्य संगठन के अधिकारी चिंतित हैं और परेशान भी हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के साथ अमेरिका के बीच तनातनी पूरी दुनिया के लिए हानिकारक है। यदि आर्थिक मदद रूकी है तो न सिर्फ कोरोना बल्कि दुनिया की कई बीमारियां जिससे दुनिया के कई देश कई बरसों से ग्रस्त हैं, उनके उन्मूलन के लिए यूएन द्वारा चलाए जा रहे सहायता कार्यक्रमों को काफी धक्का लग सकता है। कई अफ्रीकी और गरीब एशियाई देश, टीबी, कैंसर, पोलियो जैसी गंभीर बीमारियों से ही पार नहीं पा सके हैं। ऐसे में विश्व स्वास्थ्य संगठन को मिलने वाली अमेरिकी आर्थिक मदद का रूकना दुनियाभर के लिए खासतौर पर तीसरी दुनिया के देशों के लिए परेशानी का सबब होगा।
लेकिन जिस तरह से चीन विश्व स्वास्थ्य संगठन की आड़ लेकर जवाबदेही से बचने की कोशिश कर रहा है, उसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। ऐसे समय, जब सारी दुनिया इस भीषण महामारी से जूझ रही है, अच्छा तो यही होता कि ताकतवर देशों के बीच वर्चस्व की लड़ाई में विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसी संस्था को मोहरा न बनाया जाए जिसने अतीत में एचआईवी या एड्स, जीका और इबोला जैसी बीमारियों से लड़ने में विकासशील और पिछड़े देशों की मदद की है। इस टकराव के बीच, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि विश्व स्वास्थ्य संगठन कोविड-19 से लड़ाई में भारत के द्वारा उठाए जा रहे कदमों की लगातार सराहना कर रहा है।