छत्तीसगढ़।बस्तर में हर दिन किसी ने किसी वीआईपी का दौरा लगा रहता है।एक बार फिर बस्तर में माननीय महामहिम का दौरा हुआ,हुआ क्या शहर फिर से ठहर गया,मुख्य सड़कें खाली करवा दी गईं,शहर की गलियों को मुख्य सड़क से जोड़ने वाले मुहानों पर शस्त्रधारी सुरक्षाकर्मी पहरे पर मुस्तैद, मजाल है कि कोई भी आम आदमी मुख्य सड़क पर पहुंच पाए।हर कोई अपने घरों में या ज्यादा से ज्यादा अपने अपने मोहल्ले में कैद,काम धाम बंद।राष्ट्रीय राजमार्ग से गुजरने वाले वाहनों,यात्रियों से भरी बसों,ट्रकों की मीलों लंबी कतारें शहर सीमा के बाहर दोनों ओर अड़ियल बेरिकेट्स के सामने सहमी-सहमी सी ठहरी हुई।लोग परस्पर पूछते हैं महामहिम आए क्या, सड़क कब तक खुलने वाली है,फिर कुछ घंटे बीतने के बाद लोग व्याकुल होकर पूछने लगते हैं,क्या महामहिम अभी भी नहीं गए।
यह कोई नई बात नहीं बस्तर के लिए,यह अब मानो साप्ताहिक अनिवार्य कर्फ्यू जैसा हो गया है।
कभी राज्यपाल,कभी मुख्यमंत्री,कभी विभिन्न विभागों के मंत्री,प्रभारी मंत्री,अनगिनत बोर्ड्स,आयोगों के चेयरमैन, विभिन्न मंत्रालयों के मुख्यसचिव,संयुक्त सचिव,अवर सचिव वगैरा-वगैरा।सबके सब आदिवासियों के कल्याण का झोला उठाए बस्तर आते हैं और बदले में यहां के जनजीवन को अघोषित कर्फ्यू की बेड़ियों में जकड़कर लौट जाते हैं और पीछे छूट जाता है बंद अस्पताल का गेट,रुकी हुई एंबुलेंस, स्कूल जाती रोती बच्ची और आदिवासी युवक की गिरफ्तारी, जो समय पर खेत पर या अपने काम पहुंचना चाहता था,या फिर अपने खेतों में उगाई सब्जियां शहर लाकर बेचने की कोशिश कर रहा था,पर उसे पता नहीं था कि उसके शहर में महामहिम पधारने वाले हैं।
बस्तर इनके लिए बस दर्शनीय है,यहां रहने,जीने योग्य नहीं, यहां के बेल मेटल शिल्प,लकड़ी की मूर्तियां,कोसा सिल्क, झरने और भोले-भाले आदिवासी नृत्य इन सबका लुत्फ उठाने महामहिम,वीआईपीज आते हैं।उन्हें ये सब एग्ज़ॉटिक लगता है,लेकिन यहां रहना,जीना,पढ़ाना,इलाज कराना,काम पाना ये सब उनके एजेंडे में नहीं होते।अगर हर दौरे के बदले एक स्कूल या अस्पताल खुला होता,या किसानों के खेतों में पानी की व्यवस्था की गई होती तो बस्तर जापान,अमेरिका से प्रतिस्पर्धा कर रहा होता।
शहर में इन महामहिमों के आते ही ऐसा लगता है,जैसे नागरिकों का अपहरण कर लिया गया हो।सड़कें सील,रास्ते बंद,छावनी में बदले चौक चौराहे,पुलिस की टाइट घेराबंदी और ऊपर से आदेश कोई मुख्य सड़कों पर दिखाई न दे।लगता है जैसे बस्तर किसी गुप्त सैन्य परीक्षण का केंद्र बन गया है।
लोकतंत्र का वह कौन-सा स्वरूप है भाई,जहां महामहिमों, मंत्रियों,वीआईपीज के आते ही संविधान मौन हो जाता है।
असल में जनता को अपनी स्वतंत्रता त्यागने की आदत हो गई है। पिछले 70 वर्षों में इतनी बार इन महामहिमों की सवारी हमारे कंधों से गुज़री है कि अब उन कंधों पर छाले हैं,पर मन में सवाल नहीं।हमें अब वीआईपी तानाशाही का आदी बना दिया गया है।
अब जब कोई हाईवे बंद होता है,दिहाड़ी कमाने निकले मजदूर को वापस खदेड़ दिया जाता है,स्कूल को निकले बच्चे को लौटा दिया जाता है,रोज कुआं खोदकर पानी पीने वाले ठेले-रेहड़ी वालों को सड़कों से धकेल कर गलियों में मानों कैद कर दिया जाता है,किसी मरीज या गर्भवती महिला को अस्पताल पहुंचने से रोका जाता है तो लोग इसे भाग्य मानकर स्वीकार कर लेते हैं।प्रजा की यह सहनशीलता और उदासीनता ही असली विडंबना है,क्योंकि शोषण का पहला कदम होता है मौन।
शाही सवारी,लाचार प्रजा जब करोड़ों की गाड़ियों में दर्जनों हुंकारते वाहनों के काफिले के साथ महामहिम वीआईपीज बस्तर दर्शन को निकलते हैं तो उनके साथ स्पीडिंग सायरन, रेंगती गाड़ियां और सड़कों से अदृश्य कर दी गई जनता होती है,जिस राज्य में आंगनबाड़ी की छत टपकती हो वहां राजभवन,मंत्रियों,हुक्मरानों के वातानुकूलित राजसी ड्रॉइंग रूम शर्मसार ही करते हैं।
एक लोकतांत्रिक तमाशा महामहिमों के सामने मॉडल आदिवासी पेश किए जाते हैं।लंगोटी,बंडी,धोती-कुरता पहने, जबरिया मुस्कराते,नाचते-गाते,गेड़ी पर करतब दिखाते,पसीने से लथपथ जैसे कि उन्हें राष्ट्रीय विरासत के रूप में प्रदर्शन के लिए प्रशिक्षित किया गया हो।आदिवासी का जीवन नहीं बदला,पर उसका वेलकम डांस हाई-डेफिनिशन में सोशल मीडिया के लिए रिकॉर्ड हो रहे हैं।
इन वीआईपीज दौरों का सबसे बड़ा विडंबनात्मक सत्य यह है कि नागरिकों के मौलिक अधिकारों के हनन हेतु कोई औपचारिक आदेश-पत्र नहीं आता,कोई आधिकारिक धारा 144 लागू नहीं होती,कोई आधिकारिक कर्फ्यू नहीं होता,पर हाईवे,चौक चौराहों सहित सब लाठी के जोर पर बंद करवा दिया जाता है।आधुनिक लोकतंत्र का यह कैसा संस्करण है, जिसमें आदेश मौन है,पर भय उद्घोषित है।
राज्यपाल व चुने गए जन प्रतिनिधि संविधान के संरक्षक माने जाते हैं।जनप्रतिनिधि तो चुनाव के वक्त आपके दरवाजे पर हाथ जोड़कर खड़े होकर वोट की भीख मांगते हैं,लेकिन जब उन्हीं के आगमन पर जनता का मौलिक अधिकार बंद कमरे में लॉक कर दिया जाए तो क्या यह राज्य का उत्सव है या संविधान की शवयात्रा,आखिर ये जनप्रतिनिधि आम आदमियों की तरह सड़क से क्यों नहीं गुजर सकते।जनता के सेवक को भला जनता से कैसा भय।प्रजातंत्र में अगर प्रजा मालिक है और जनप्रतिनिधि जनता के सेवक हैं तो सेवक के आगमन पर मालिक यानी आम नागरिक को सड़क से क्यों खदेड़ दिया जाता है।जनाब जनता को मौन दर्शक बनाकर शासन चलाना, किसी फिल्म की शूटिंग हो सकती है,लोकतंत्र नहीं।
विश्व के सबसे बड़े प्रजातंत्र और सबसे ज्यादा धनी देश अमेरिका में मात्र 254 वीआईपी हैं,जबकि हमारे भारत में 5,79,000 से ज्यादा वीआईपीज हैं।यानी कि हमारे यहां अमरीका से 2300 गुणा ज्यादा वीआईपीज हैं।
विभिन्न देशों में VIP's की संख्या निम्नानुसार
1. फ्रांस - 109
2. जापान - 125
3. जर्मनी - 142
4. आस्ट्रेलिया - 205
5. अमेरिका - 254
6. रूस - 312
7. चीन - 435
8. भारत - 579092
अन्य मामलों में हमारा देश भले अव्वल ना हो पर वीआईपीज के मामले में हम निर्विवादित रूप से नंबर वन हैं।कुल दुनिया भर के सभी देशों में मिलकर जितने वीआइपी होंगे उससे ज्यादा तो अकेले हमारे देश में ही भरे पड़े हैं। इस मायने में तो हमें विश्व गुरु का दर्जा मिलना ही चाहिए,परंतु यह भी विचारणीय है कि इन पौने छह लाख वीआईपीज पर होने वाले नानाविध खर्चों का गुरुतर बोझ उस देश के कंधों पर है जो कि ग्लोबल हंगर इंडेक्स यानि कि भूखे-नंगे देशों की सूची में 127 देशों में 105-वें स्थान पर यानि अति गंभीर स्थिति में खड़ा है।
कुछ विचारणीय प्रश्न,जो हुक्मरानों से पूछे जाने चाहिए।क्या यह ज़रूरी है कि महामहिम वीआईपीज आएं,तो जनता घरों में बंद हो,क्या जनता के सेवक की सवारी जनता से ऊपर हो सकती है,क्या बस्तर किसी पर्यटन बुकलेट का पृष्ठ है,जहां जनता केवल शो-केस में रहे।
सवाल जनता से भी है कब तक हम इसे अनिवार्य नियति मानते रहेंगे और कब तक हम यह सोचकर चुप रहेंगे कि चलो, कुछेक घंटों या एक-दो दिनों की ही तो बात है,जिस व्यक्ति को जनता ने कभी नहीं चुना वही व्यक्ति लोकतंत्र की संवैधानिक गरिमा का मुखौटा पहनकर करोड़ों की सरकारी निधि पर शाही ठाठ करता है।यह दृश्य केवल भारतीय विडंबना नहीं, बल्कि औपनिवेशिक मानसिकता की जीवित शवयात्रा है। राज्यपाल का पद,वस्तुतः ब्रिटिश सम्राज्य की उस राजनीतिक जादूगरी की देन है, जहां राजा का प्रतिनिधि होने के नाम पर पूरे उपनिवेश को गुलाम बनाए रखा गया।पर वहां तो बात समझ में आती थी कि ब्रिटेन का खजाना तो उपनिवेशों की लूट से भरा था, वह अफ्रीका से लेकर एशिया तक लूट के संसाधनों से मालामाल था और उसका राजा सचमुच सूरज के नीचे कहीं न कहीं शासन कर ही रहा होता था। वह अपनी विलासिता का खर्च उठा सकता था।पर भारत जैसे गरीब लोकतंत्र,जहां आज भी लाखों बच्चे कुपोषण से मरते हैं, किसान आत्महत्या करते हैं,अस्पतालों में बेड नहीं,स्कूलों में शिक्षक नहीं वहाँ यह राज्यपाल प्रणाली केवल औपनिवेशिक नकल की मानसिक विकृति है।संविधान की संरक्षण की जिम्मेदारी जिनके सिर पर है,वे स्वयं संविधान की आत्मा यानी जनता की सर्वोच्चता को सबसे पहले रौंदते हैं।
यह रबर स्टैम्प पद,जिसका निर्णयकारी योगदान लगभग शून्य है,आज भी महलों,हेलीकॉप्टरों,कार काफिलों और चापलूसों की भीड़ में लिपटा है,महज इसलिए क्योंकि हम मानसिक रूप से अब भी महामहिम,हिज एक्सीलेंसी वायसरॉय के चरण-स्पर्श से ऊपर उठ नहीं पाए।संविधान ने जहां नागरिकों की समानता की बात की थी,वहान हम अब भी गुलामी की चमक में अंधे होकर महामहिम की गाड़ी के लिए जनता को फुटपाथ पर खदेड़ देते हैं।
अब समय है कि हम इस अनुपयोगी,अत्यंत खर्चीले, गैर-लोकतांत्रिक ढांचे की पुनर्समीक्षा करें।क्योंकि यह न सिर्फ आर्थिक दृष्टि से दायित्वहीन है, बल्कि समाज शास्त्रीय और संवैधानिक दृष्टि से लोकतंत्र का अपमान है।हमें यह भी तय करना पड़ेगा कि हम प्रजाजनों की तरह व्यवहार करते रहेंगे, या नागरिकों की तरह बोलना शुरू करेंगे।देश ने राजशाही बहुत देख भी लिया और झेल भी लिया।अब न ये बिना ताज के राजा चाहिए,न गरीब जनता के खून पसीने के पैसों से खरीदे गए गए उनके ये अशोभनीय भौंडे राजसी ठाट-बाट।
जनता को चाहिए केवल एक उत्तरदायी शासन।
अंत में याद आता है एक स्मरणीय संस्कृत श्लोक "राजा प्रजा सुखे सुखं, नात्मसुखमेव हि।
प्रजानां तु हितं राजा, स्व हितं विद्धि तद्विधम्॥"
(राजा का सुख प्रजा के सुख में होना चाहिए। प्रजा का हित ही राजा का असली हित है।)
"न यः प्रजाहितं ब्रूते, न च धर्मे स्थिता वचः।
स राजा नाम नास्त्येव, स तु दुःखस्य कारणम्॥"
(जो राजा प्रजा के हित में न बोले, न धर्म पर टिका हो — वह राजा नहीं, दुःख का कारण मात्र है।) -इति -
ग्रामीण अर्थशास्त्र एवं कृषि मामलों के विशेषज्ञ तथा राष्ट्रीय-संयोजक,अखिल भारतीय किसान महासंघ आईफा डॉक्टर राजाराम त्रिपाठी।