अजीब उलझन है न बाहर जा सकते हैं न वापस लौट सकते हैं। वैसे सुप्रसिद्ध कवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा था कि- तेरे घर के द्वार बहुत हैं, किसमें हो कर आऊं मैं? सब द्वारों पर भीड़ मची है, कैसे भीतर जाऊं मैं? द्बारपाल भय दिखलाते हैं, कुछ ही जन जाने पाते हैं, शेष सभी धक्के खाते हैं, क्यों कर घुसने पाऊं मैं? कवियों को समझना टेढ़ी खीर होता है जिसमें कहीं पर निगाहें, कहीं पर निशाना होता है। हमें तो इस कविता में वर्तमान दृष्टिगत् हो रहा है, जो इन दिनों दिखाई भी देता है। घर से निकलते ही, कुछ दूर चलते ही, ख़ाकी से होती मुलाक़ात, फिर जो लट्ठ पड़ते जी, सर पर बरसते जी, होती फिर भागमभाग, घर से निकलते ही....। देश के श्रमिकों की स्थिति भी कुछ-कुछ ऐसी ही हो गई है, बेचारे घर से सामान बाँध निकलते हैं, इस उम्मीद से कि पहुँच जाएंगे अपने गाम, पर सड़क पर आते ही जब दिल्ली से बाहर निकलने का रास्ता किसी भूलभुलैया-सा भटकाता है, तो मन के कोने में टीस उभर आती है। बेदर्द शहर, न खाने देता है, न जीने देता है, जाते हैं तो रोक देता है.....ख़ैर।
वैसे इन दिनों कुछ बिके या न बिके, बाज़ार में पिट्ठू बैग की बिक्री ज़ोरों पर है। हर यायावर अपने सपनों को इस बैग में समेटे इस बेदर्द शहर से कूच की तैयारी में है। हमारे चंडूखाने के सीनियर रिपोर्टर ने ख़बर दी है कि पुलिस, इन पलायन कर रहे पिट्ठूधारियों को उनके बैग की बदौलत तुरंत पहचान लेती है। हालांकि आजकल लोग भी इस तरह के बैग इस्तेमाल कर रहे हैं लेकिन अंतर यही है कि उनके पिट्ठू बैग में आमतौर पर लैपटॉप या हल्का-फुल्का सामान होता है जबकि शहर छोड़ रहे इन मजबूरों के थैलों में दुनिया-जहान की चीज़ें, टूटे-बिखरे सपने, कुछ कपड़े-लत्ते भरे होते हैं। बैग्स का यही फूलापन पुलिस की निगाहों में आ जाता है और फिर बॉर्डर पर ये न घर के रहते हैं, न घाट के। हालांकि कुछ लोगों ने दावा किया कि हम बस लिए खड़े हैं, घर छोड़ देंगे.... पर राजनीति की खिचड़ी में सब गुत्थम-गुत्था हो गया। कुछ इस अंदाज़ में जैसे गाँव के सेठजी के घर साधु ने अलख जगाई। बहू बाहर आई, बोली- बाबा जाओ, घर में आज कुछ नहीं पका, भीख नहीं मिलेगी। साधु चल दिया। मार्ग में सास मिली। परिचित साधु ने बहू-प्रकरण सुनाया। आगबबूला सास तुरंत साधु ले घर पहुँची। दी बहू को फटकार, तेरी इतनी हिम्मत...साधु को भीख देने से मना किया। साधु मुदित, अब तो अच्छा मिलेगा, सेठानी जो आई हैं। ज़रा देर में सेठानी बाहर निकली, बोली- बाबा जाओ, घर में आज कुछ नहीं पका, भीख नहीं मिलेगी। मना करने का राइट मेरा था, ये बहू कौन होती है....साधु टेंशन के मारे कोमा में पहुँच गया। बसों की सुविधा दे रहे लोगों से इन बेचारों को आस बंधी थी कि चलो, बसों के पंजों के सहारे ही वैतरणी पार हो जाएगी पर कीचड़ ने सब गुड़-गोबर कर दिया, टायर ही धंसा दिए....बच्चू, हम दे ही न रहे परमिशन। निकलेगा कैसे, चित् भी मेरी-पट भी मेरी और अंटा मेरे बाप का....।
तो बड़ी समस्या एक बार फिर....कंधे पर पिट्ठू बैग क़तई न लटकाएं। सुना है ख़ाक़ी वाले इन दिनों गुलेल चलाना भी सीख रहे हैं। जहाँ कंधे पर पिट्ठू बैग देखा, पट्ठे सट्ट से गुलेल छोड़ देते हैं। बॉर्डर पार करते समय तो और भी सावधानी बरतें, जाने कौन-कौन से अस्त्र, कहाँ-कहाँ पड़ जाएं। वैसे बिन-माँगी सलाह तो यही है कि ठाड़े रहियो, ओ बाँके यार रे.... क़दम आगे बढ़ाया तो ठुकना तय है बच्चू। लॉकडाउन अभी ख़त्म नहीं हुआ है.....।
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