कानपुर। 1947 में अंग्रेजों से हिंदुस्तान को आजादी मिली थी। आजादी के बाद देश दो मुल्कों में बंट गया।एक हुआ हिंदुस्तान और एक बन गया पाकिस्तान।बंटवारे का मंजर इतना दर्दनाक था कि चारों तरफ शव ही शव नजर आ रहे थे।इस बंटवारे ने कई परिवारों को इधर से उधर कर दिया,कई परिवार टूट गए,लेकिन कुछ ऐसे भी थे जो हिम्मत नहीं हारी।ऐसा ही एक अरोड़ा परिवार था।बंटवारे के बाद इस परिवार ने भारत का रुख किया और मुफलिसी से लड़ते हुए आज उस मुकाम पर पहुंच गया,जहां चारों तरफ सिर्फ तरक्की है।इन सबके बावजूद उन दिनों को याद करते हुए आज भी आंखें नम हो जाती हैं।सड़क पर रहना और बंटवारे का दर्द आज भी जीवंत हो उठता है।
कानपुर के कारोबारी विनय अरोड़ा बंटवारे के समय का दृश्य बयान करते हैं।विनय ने बताया कि उनके दादा मूलचंद अरोड़ा और दादी द्रोपदी देवी अरोड़ा लाहौर के भगवानपुरा में रहा करते थे।मूलचंद अरोड़ा कपड़े का व्यापार करते थे और अपने दो बेटों और तीन बेटियों का पालन पोषण कर रहे थे।उस समय 1947 में बंटवारे की त्रासदी आई और अपना सब कुछ छोड़कर मूलचंद अपने परिवार को लेकर ट्रेन में सवार हो गए।विनय अरोड़ा ने बताया कि उन्होंने अपने बुजुर्गों से सुना है कि चारों तरफ लाशें ही लाशें थीं,सबको काटा जा रहा था,इन सबके बीच बोरियों के पीछे छुपते हुए मूलचंद अपने परिवार को लेकर कानपुर आ गए।
पुराने दिनों को याद करते हुए विनय अरोड़ा ने बताया कि दादा मूलचंद के कानपुर आने का कारण था कि उनके मौसा यहीं रहा करते थे,अपना परिवार पालने के लिए मूलचंद अरोड़ा व्यापार की तलाश में हरिद्वार गए और वहीं उनका देहांत हो गया।एक तरफ परिवार रिफ्यूजी कैंप में और दूसरी तरफ परिवार के मुखिया का साया भी चला गया।विनय ने बताया कि मूलचंद की पत्नी द्रोपदी देवी लाहौर से मात्र 6 आने लेकर आई थीं।ऐसे में मूलचंद के बड़े बेटे मंगतराम अरोड़ा जो मात्र 12 वर्ष के थे और उनके भाई व विनय अरोड़ा के पिताजी यशपाल अरोड़ा जो 8 साल के थे, उन्होंने परिवार का जिम्मा उठाने की हिम्मत जुटाई।दोनों ट्रेन में ब्लेड और मुंगफली बेचने लगे और साथ ही थोड़ा बहुत सड़क के किनारे कपड़े भी बेच लेते थे।
विनय ने बताया कि कुछ समय बाद पाकिस्तान से आए रिफ्यूजियों को सिविल लाइंस में टट्टर की दुकानें दी गईं, जिससे वो अपना जीवन यापन कर पाए।यह जगह आज शहर की सबसे पॉश नवीन मार्केट है,यहां पर मंगतराम और यशपाल अरोड़ा ने चटाई, बास्केट इत्यादि सामान बनाकर बेचा और अपने परिवार का जीवन यापन शुरू किया।विनय ने बताया कि उनके दादा पढ़े लिखे नहीं थे,लेकिन इसके बावजूद यह चाहते थे कि परिवार ने सब पढ़ाई करे।उस टट्टर की दुकान से किसी तरह परिवार का पेट पलने लगा।
विनय ने बताया कि ताऊ मंगतराम अरोड़ा और पिता यशपाल अरोड़ा की मेहनत रंग लाई और धीरे-धीरे परिवार तरक्की करने लगा,जिस जगह पर टट्टर की एक दुकान थी उसी जगह पर आज परिवार के 6-7 शोरूम हैं, इसके अलावा शहर में बैंकेट हॉल और गेस्ट हाउस भी है।विनय ने बताया कि त्रासदी ने सबको साथ रहने के संस्कार दिए और आज परिवार की पांचवी पीढ़ी चल रही है,इसके बावजूद सभी सदस्य संयुक्त परिवार में रहते हैं,आज सभी बड़ा कारोबार संभालते हैं, कई सदस्य नौकरी भी करते हैं,लेकिन रहते सब साथ हैं।विनय ने बताया कि आज भी पूरा परिवार त्यौहार एक साथ मनाता है। त्यौहार की पूजा भी एक ही जगह पर होती है।होली, दिवाली भी परिवार एक ही जगह तय करके साथ में मनाते हैं।
विनय ने बताया कि अब ताऊ जी और पिताजी दोनों ही नहीं रहे,लेकिन परिवार में एकता और प्यार आज भी है।हमें सुख दुख के लिए किसी बाहर वाले की जरूरत ही नहीं पड़ती,क्योंकि परिवार में ही इतने सदस्य हैं।विनय मानते हैं कि संयुक्त परिवार आज भी सबसे बड़ी ताकत होती है,यही वो ताकत है,जिसने आज 6 आने से शुरू करके कारोबार को करोड़ों रुपए तक पहुंचा दिया।बंटवारे की टीस आज भी है,लेकिन एक संतोष भी है कि पूरे परिवार को साथ लेकर जीवन में तरक्की की।आज सब खुशहाल है,आबाद हैं।