दिन तो सबके फिरते हैं। ऐसा सुन रखा है। कुत्ते और घूरे के भी फिरते हैं, बस फिरने में थोड़ा समय लगता है। अब समय आ गया है लेकिन इस बार कुत्ते और घूरे के नहीं, गिद्धों और सियारों के दिन फिरे हैं। दरअसल इनके दिन फिरे ही नहीं हैं, स्वर्णिम हो गए हैं। मुझे तो लगता है कि इन्हीं के सौभाग्य से कोरोना आया और जमकर आया। दूसरी लहर लेकर आया। आखिर ये गिद्ध और सियार कब तक भूखे रहते। अपने दास मलूका कह गए हैं कि अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम। तो काम करना जिनकी मर्यादा के खिलाफ है, उनका पेट कैसे भरे, उनका वैभव कैसे बढ़े ? सामान्य पेट हो तो भर भी जाए, सुरसा जैसा हो तो कैसे भरे ?
सुना है कि इस बार कोरोना ने अपनी प्रकृति और रूप बदल लिया है। प्रकृति और रूप बदलते ही हर प्राणी संसार के लिए खतरा बन जाता है, वह छोटा हो या बड़ा। मौका देखकर गिद्ध और सियारों ने भी अपना रूप बदला है। पहले सियार गाँव के बाहर सिवान पर जंगल-झाड़ी में रहते थे तथा गिद्ध बूढ़े अंधेरे बरगद पर। अब ये वहाँ से चलकर शहर आ गए हैं। अस्पतालों के आसपास चक्कर लगा रहे हैं। कुछ एंबुलेंस चलाने लगे हैं, कुछ आक्सीजन का सिलेंडर इधर-उधर करने लगे हैं और जो ज्यादा तगड़े थे, वे रिमेडेसिवर का इंजेक्शन बनाने और ब्लैक करने लगे हैं।
बचपन में गर्मियों में आँधी आती तो हम बगीचे में आम बीनने जाते थे। आँधी तेज हो तो इतने आम गिरते थे कि हम बीन नहीं पाते थे। आज कोरोना की आँधी है। इतनी लाशें गिर रही हैं कि बीनने वाले हारकर बैठ गए हैं। आँखें इतना रो चुकी हैं कि आगे की सेवा से मना कर दे रही हैं लेकिन गिद्ध और सियार खुशी से बल्ले-बल्ले हो रहे हैं। खुशी के आँसू रो रहे हैं। यह सच है कि अब तक वे स्वाभाविक रूप से मरे हुए मुर्दों पर पल रहे थे। तरह-तरह के मुर्दे खाए थे लेकिन मारकर नहीं खाये थे। अपने आप जो लाशें गिर रही थीं, वे तो थीं ही, अब उन्हें आदमी को लाश में बदलने का हुनर भी आ गया है।
गिद्धों ने सियारों से गठजोड़ कर लिया है। वे रिमेडिसिवर और पैरासीटामाल की आपूर्ति कर रहे हैं। अब मरीज के तीमारदार को दवा की दुकान पर नहीं जाना है। वहाँ जाकर कुछ भी हासिल नहीं होना है। गिद्धों और सियारों ने माल उठा लिया है और मरीज तक सीधे पहुँचा रहे हैं। अब दो हजार रुपये के इंजेक्शन का बीस हजार ले रहे हैं तो क्या बुरा कर रहे हैं? आखिर सेवा भी तो दे रहे हैं ! जिस जान को करोड़ों में नहीं खरीदा जा सकता, उसके लिए बीस हजार क्या है? आक्सीजन और पैरासीटामाल अपने गोदाम के तहखाने में सुरक्षित रख लिए है। बुरे वक्त में काम आएगा। दुर्भाग्य तो यह है कि अब उतना बुरा वक्त आया नहीं जितना वे चाहते थे।
वे अपनी उम्मीद पर कायम हैं - अभी और बुरा वक्त आएगा। उन्होंने अपने खानदान के बुद्धिजीवियों और प्रतिभाशाली लोगों को सत्ता की तमाम सीढि़यों पर बिठा रखा है। पूरा प्रशासन वे देख रहे हैं। असली प्रशासक वही जिसे दुख से निपटना भले न आए लेकिन दुखी व्यक्ति को निपटा सके। बड़े मुश्किल से ऐसे पद एवं अवसर मिलते हैं। घोड़ा घास से दोस्ती कर ले तो खाएगा क्या? शेर करुणानिधान हो जाए फिर तो भर चुका पेट। फिर भी वह भागने का मौका तो देता है।
वे बड़े गिद्ध हैं। उन्हें लाश बनाने का तरीका एवं उपयोगिता मालूम है। उन्हें मालूम है कि उनकी बिरादरी के छुटभइये एंबुलेंस चला रहे हैं या चलवा रहे हैं। वे मृतप्राय से इतना वसूल ले रहे हैं कि अस्पताल पहुँचने से पहले ही बंदा भगवान को प्यारा हो जा रहा है। ये तो लोगों को अब समझ में आया कि ये चलते समय इतनी भयंकर आवाज क्यों निकालते हैं!
कुछ को पानी वाले रिमेडिसिवर के उत्पादन में लगा दिया है। इससे इंजेक्शन की किल्लत दूर होगी, मरीज और रिश्तेदारों का मनोबल बढ़ेगा। घर-द्वार बेचकर, भीख माँगकर वे इसे खरीदेंगे और लगवाएँगे। जिसे बचना होगा तो मनोबल से बच जाएगा। वरना भरती हो जाने के बाद इलाज से कौन बच पाता है ? दो हजार की दवा बीस हजार में खरीदकर लगवाने से रिश्तेदार के मन में अपने कर्तव्य पूरे करने का भाव जागेगा। उसे पश्चात्ताप नहीं रहेगा कि फलाने के लिए कुछ किया नहीं। सारा धन-संसाधन लुट जाने के बाद मन में संतोष पैदा हो जाता है। अगर एक परिवार से एक व्यक्ति भी कोरोनादेव की भेंट चढ़ गया तो बाकी परिवार अपने आ लाश बन जाएगा। गिद्ध और सियार का जीवन लाशों से ही चलता है, जिंदा से नहीं। लाश की जेब से आप क्या निकाल रहे हैं, उसे क्या पता ?
याद आता है कि गाँव में था तो सर्दियों में दस-बारह दिन तक भयंकर शीतलहर चलती थी। आदमी से लेकर पालतू पशुओं तक के लिए चारा नहीं होता था। उस बीच जानवर खूब मरते थे और लोग गाँव के बाहर फेंक आते थे। उस समय दादी जैसी औरतें बोलती थीं कि ‘मरन-बरहा’ लगा है यानी मरने के बारह दिन। सीवान के सियार भगवान से प्रार्थना करते थे कि सबको मार दो जिससे हमें भोजन मिले। ‘मरन-बरहा’ सियार के भोजन का स्वर्णकाल होता था। कुत्तों, सियारों और गिद्धों में मांस नोचने की लड़ाई होती थी। बैठे-बिठाए पेटफाड़ भोजन मिल जाता था। साँस लेने की जगह नहीं बचती थी।
‘मरन-बरहा’ बदलकर कोविडयुग हो गया। सुना है कि गिद्धों-सियारों ने ऐसी मौज केवल महाभारत काल में की थी। बहुत दिनों तक के लिए योद्धाओं की लाशें स्टोर कर ली थी। शायद ‘शवबैंक’ बना लिया हो। लाश ताजी हो या बासी-तिबासी, नौजवान की हो या वृद्ध की, महिला या पुरुष की हो, संत की हो या हत्यारे की, दुर्बल की हो या सबल की, हत्या की हो या स्वाभाविक, ये अंतर नहीं करते। समदर्शी हैं। अब इन्होंने प्रार्थना के बजाय व्यापार कला सीख ली, तकनीक सीख ली जिसे अवसर प्रबंधन कहा जाता है। नई भर्तियाँ भी चल रही हैं गिद्ध और सियार रेजीमेंट में। इसमें जाति, धर्म, कद-काठी, शिक्षा, उम्र आदि की कोई सीमा नहीं है। जिसकी भी आत्मा मर गई हो, जिसे ऐसी महामारी में भी अपनी अमरता का विश्वास हो और जो लाश बनाने और बेचने का ढंग जानता हो, वह तत्काल काम शुरू कर सकता है। गिद्धों और सियारों का स्वर्णिम काल प्रारंभ हो चुका है। इतिहासकार कृपया ध्यान दें।