लखनऊ।आतंकवाद आधुनिक समय की बहुत जटिल चुनौती है।आतंकवाद ने विश्वभर की सरकारों,समाज और मानवीय संरचना को बहुत गहराई तक प्रभावित किया है।काफी लंबे समय तक यह माना जाता रहा कि आतंकवादी गतिविधियों में वही लोग शामिल होते हैं,जिनकी पृष्ठभूमि आर्थिक रूप से कमजोर,सामाजिक रूप से पिछड़ी या शैक्षिक रूप से पिछड़ी होती है।यह सोच आंशिक रूप से सही भी थी क्योंकि अनेक देश और समाज अशिक्षा,बेरोजगारी और गरीबी से जूझते रहे हैं,जिससे असंतोष पैदा होता है और असंतोष को हिंसा की ओर मोड़ने वाले समूह उसे अपने हित में इस्तेमाल करते हैं, लेकिन 21वीं सदी के दूसरे दशक और उसके बाद हुए अनेक मामलों ने इस धारण को बुनियादी रूप से बदल दिया है।
अब यह प्रमाणित हो चुका है कि आतंकवाद का संबंध केवल गरीबी,अवसरों की कमी या सामाजिक उपेक्षा से नहीं है, बल्कि कई बार उच्च शिक्षित,संपन्न,तकनीकी रूप से दक्ष और समाज में प्रतिष्ठित स्थान रखने वाले युवक भी कट्टरपंथ की राह पकड़ लेते हैं और आतंकी संगठनों का हिस्सा बन जाते हैं। यह नई प्रवृत्ति उन सभी के लिए चुनौती है जो शिक्षा को मानव विकास की अंतिम सुरक्षा-ढाल मानते रहे हैं।
शिक्षा का उद्देश्य केवल रोजगार अर्जित करना या डिग्री प्राप्त करना नहीं होता,बल्कि व्यक्ति के विवेक,संवेदनशीलता, चिंतनशीलता और लोकतांत्रिक चेतना का विकास भी इसका एक महत्वपूर्ण लक्ष्य है,लेकिन जब कोई शिक्षित युवक कट्टरपंथी या हिंसक विचारधारा की गिरफ्त में आ जाता है तो शिक्षा का यह उद्देश्य विफल हो जाता है।हाल के वर्षों में हुए कुछ चर्चित मामलों ने यह दिखाया है कि डॉक्टर, इंजीनियर, प्रबंधन विशेषज्ञ, सॉफ्टवेयर पेशेवर, विश्वविद्यालय के छात्र, प्रोफेसर और शोध-छात्र तक आतंकी गतिविधियों में संलिप्त पाए गए हैं।इनके पास न तो संसाधनों की कमी थी,न अवसरों की, न सामाजिक प्रतिष्ठा या रोजगार की। इसके बावजूद वे कट्टरपंथ से प्रेरित होकर हिंसा के मार्ग पर चले गए।इससे यह सवाल और गहरा हो जाता है कि आखिर वह कौन सी मानसिक, सामाजिक और वैचारिक प्रक्रिया है, जिसके कारण एक शिक्षित युवक अपने सभी तार्किक, वैज्ञानिक और मानवीय मूल्यों को छोड़कर विनाश का रास्ता चुन लेता है।
इस प्रवृत्ति को समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि आधुनिक आतंकी संगठन केवल हथियारबंद हिंसा तक सीमित नहीं रह गए हैं।अब वे अत्याधुनिक तकनीक,डिजिटल सुरक्षा,साइबर विशेषज्ञता,ड्रोन संचालन,ऑनलाइन प्रचार-प्रसार,गोपनीय संचार प्रणालियों और वित्तीय नेटवर्कों का उपयोग करते हैं।ऐसे में उन्हें ऐसे युवक चाहिए होते हैं जो इन क्षेत्रों में दक्ष हों।
उच्च शिक्षित युवक उनके लिए इसलिए उपयोगी होते हैं क्योंकि उनके पास तकनीकी कौशल, सामाजिक प्रभाव, डिजिटल दक्षता और पेशेवर संसाधन होते हैं। यही कारण है कि अब आतंकवादी मॉड्यूल में डॉक्टर,इंजीनियर और आईटी विशेषज्ञों की भूमिका बढ़ती जा रही है। चिकित्सा ज्ञान रखने वाले व्यक्ति विस्फोटक या रासायनिक पदार्थों का प्रभाव समझते हैं,इंजीनियर जटिल उपकरण तैयार कर सकते हैं। आईटी विशेषज्ञ साइबर संरचना को सुरक्षित रखने में सक्षम होते हैं। इस प्रकार उनकी शिक्षा आतंकियों के लिए एक हथियार बन जाती है।इस प्रवृत्ति का वैश्विक परिप्रेक्ष्य भी उतना ही चिंताजनक है।
इतिहास में कई ऐसे कुख्यात आतंकियों के नाम दर्ज हैं, जिनकी पृष्ठभूमि अत्यंत शिक्षित और संपन्न थी।ओसामा बिन लादेन एक अरबपति परिवार से था और उसने इंजीनियरिंग और प्रबंधन की शिक्षा प्राप्त की थी।अयमान अल-जवाहिरी पेशेवर चिकित्सक था,जिसने अपनी चिकित्सा शिक्षा मिस्र से प्राप्त की थी। हाफिज़ सईद ने इस्लामिक स्टडीज़ में उच्च शिक्षाएं प्राप्त कीं और विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य किया। मसूद अजहर शिक्षित परिवार से था और कई देशों की यात्राओं के दौरान उसने कट्टरपंथी नेटवर्कों से घनिष्ठ संबंध बनाए। याक़ूब मेमन पेशे से चार्टर्ड अकाउंटेंट था। इसी प्रकार अनेक ऐसे उदाहरण मिलते हैं,जिससे यह स्पष्ट होता है कि शिक्षा और आतंकवाद के बीच की रेखा अब उतनी स्पष्ट नहीं रह गई है, जितनी कभी मानी जाती थी,लेकिन यह प्रश्न बना रहता है कि आखिर उच्च शिक्षित युवक क्यों भटकते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण विचारधारा का उग्र रूप है। कट्टरपंथ किसी भी धर्म, समुदाय या विचारधारा तक सीमित नहीं होता; वह एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है जो व्यक्ति की पहचान, उद्देश्य और अस्तित्व के संकट का लाभ उठाती है।
कई युवक अपने जीवन में अर्थ,उद्देश्य या विशिष्टता खोज रहे होते हैं।ऐसे में कट्टरपंथी विचारधाराएं स्वयं को एक महान मिशन के रूप में प्रस्तुत करती हैं और युवक को यह अहसास कराती हैं कि वह किसी बड़े ऐतिहासिक संघर्ष का हिस्सा बनने जा रहा है। इस प्रकार मनोवैज्ञानिक आकर्षण पैदा होता है और धीरे-धीरे वह व्यक्ति इस विचारधारा का अनुयायी बन जाता है।
दूसरा कारण डिजिटल युग में सूचना और दुष्प्रचार का अनियंत्रित प्रसार है।इंटरनेट और सोशल मीडिया ऐसे अनेक मंच उपलब्ध कराते हैं,जहां कट्टरवादी तत्व अपने विचारों को आकर्षक,भावनात्मक और भ्रामक रूप में प्रस्तुत करते हैं। एल्गोरिद्म व्यक्ति को लगातार उसी प्रकार की सामग्री दिखाते रहते हैं,जिससे उसकी सोच एक ही दिशा में चलने लगती है और वह एक इको चेंबर में पहुंच जाता है। इस प्रक्रिया में वह दूसरों की राय,विरोधी तथ्य और वैज्ञानिक तर्कों को स्वीकार ही नहीं करता। परिणामस्वरूप उसका पूरा दृष्टिकोण एकतरफा,भावनात्मक और हिंसक हो सकता है।
तीसरा कारण बौद्धिक अहंकार भी है। कई उच्च शिक्षित युवक यह मानने लगते हैं कि वे समाज की सामान्य भीड़ से अलग और श्रेष्ठ हैं और इसलिए उनका निर्णय,उनकी सोच और उनका मिशन भी श्रेष्ठ होगा। जब कट्टरपंथी संगठनों के सदस्य उन्हें यह संदेश देते हैं कि हमारी विचारधारा दुनिया को बदल सकती है और तुम जैसे शिक्षित लोग ही इसका नेतृत्व कर सकते हो तो यह बौद्धिक अहंकार उनके निर्णय पर हावी हो जाता है।उन्हें लगता है कि वे किसी ऐतिहासिक कार्य में योगदान दे रहे हैं, भले ही वह मार्ग विनाशकारी क्यों न हो।
चौथा महत्वपूर्ण कारण पहचान की राजनीति और सामाजिक ध्रुवीकरण है। कई बार युवक किसी समुदाय विशेष के प्रति भावनात्मक रूप से जुड़ जाता है और यदि उसे लगता है कि उस समुदाय के साथ अन्याय हो रहा है, तो वह प्रतिशोध की भावना से ग्रसित हो सकता है। कट्टरवादी नैरेटिव ऐसे ही भावनात्मक क्षणों का शोषण करते हैं और उन्हें न्याय के युद्ध का नाम देकर युवाओं को भड़काते हैं।
इन सभी कारणों के बीच यह भी सच है कि शिक्षा का अर्थ केवल सूचना या तकनीकी ज्ञान प्राप्त करना नहीं है।शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य व्यक्ति के भीतर मानवीय संवेदना,नैतिकता, तार्किकता और सामाजिक उत्तरदायित्व पैदा करना है। जब शिक्षा इन मूल्यों से कट जाती है तब डिग्री केवल एक तकनीकी योग्यता बनकर रह जाती है जिसे कोई भी व्यक्ति अपनी सुविधा के अनुसार अच्छे या बुरे उद्देश्य के लिए उपयोग कर सकता है। आज की चुनौती यह है कि शिक्षा को केवल कौशल विकास तक सीमित न रखा जाए, बल्कि उसमें नैतिक शिक्षा, बहुलतावादी सोच, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, लोकतांत्रिक मूल्यों और सामाजिक संवेदना को भी शामिल किया जाए।
आतंकवाद की इस नई प्रवृत्ति का समाधान केवल पुलिस कार्रवाई या कानून व्यवस्था से नहीं होगा।इसके लिए समाज, परिवार,विद्यालय,विश्वविद्यालय,मीडिया,धार्मिक संस्थाओं और सरकार सभी को मिलकर कार्य करना होगा। शिक्षण संस्थानों में ऐसे कार्यक्रम शुरू किए जाने चाहिए जो युवाओं को आलोचनात्मक सोच,नैतिक निर्णय क्षमता और बहस-संवाद की संस्कृति सिखाएं।इंटरनेट पर फैलने वाले कट्टरपंथी दुष्प्रचार का वैज्ञानिक और तार्किक प्रतिवाद किया जाना चाहिए।सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों को भी ऐसी सामग्री पर निगरानी और नियंत्रण बढ़ाना होगा जो युवाओं को भटकाने का कार्य करती है। परिवार की भूमिका भी अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि सबसे पहले वही यह पहचान सकता है कि युवक की सोच किस दिशा में जा रही है।
डिजिटल साक्षरता और मानसिक स्वास्थ्य को भी इस चर्चा का हिस्सा बनाना चाहिए। कई युवक अवसाद,अकेलेपन, असहायता या असंतोष का सामना करते हैं और उन्हें लगता है कि उनका जीवन अर्थहीन है। ऐसे क्षणों में कट्टरपंथी समूह उन्हें उद्देश्य देने का दावा करते हैं। यदि समाज और परिवार ऐसे युवाओं को समय रहते ही भावनात्मक और सामाजिक समर्थन प्रदान करें, तो उन्हें भटकने से रोका जा सकता है।
यह स्पष्ट है कि युवा शक्ति किसी राष्ट्र की सबसे बड़ी संपत्ति होती है। जब यह शक्ति ज्ञान, विवेक और सकारात्मक ऊर्जा के साथ आगे बढ़ती है, तो राष्ट्र का विकास निश्चित होता है,लेकिन जब वही ऊर्जा कट्टरता,हिंसा और विनाश की ओर मुड़ जाती है तो न केवल युवक अपना भविष्य नष्ट करता है बल्कि संपूर्ण समाज और देश को भी खतरे में डाल देता है। इसलिए यह आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है कि शिक्षा को व्यापक,मानवीय,नैतिक और समावेशी बनाया जाए।
युवाओं को हिंसक विचारधारा से बचाने के लिए सामाजिक तंत्र अधिक जागरूक और सक्रिय बने और डिजिटल युग की चुनौतियों का मुकाबला वैज्ञानिक और व्यवस्थित नीति से किया जाए। केवल तब ही हम यह सुनिश्चित कर पाएंगे कि शिक्षित युवक अपनी प्रतिभा,क्षमता और ऊर्जा का उपयोग राष्ट्र-निर्माण में करें, न कि विनाश की राह पर चलने में।
हाल के दशकों में आतंकवाद विश्व के लिए एक गंभीर खतरे के रूप में उभरा है,जो देशों की सीमाओं को पार करके पूरे में तबाही मचा रहा है।चरमपंथी विचारधाराओं से प्रेरित यह खतरा अपने पीछे विनाश, निर्दोष लोगों की जान जाने और आर्थिक उथल-पुथल का निशान छोड़ रहा है। अगर विश्व के देशों की बात करें तो कई देश आतंकवाद से परेशान हैं और इससे निपटने का उपाय खोज रहे हैं।
आतंकवाद अक्सर धार्मिक,राजनीतिक या सामाजिक मान्यताओं में निहित चरमपंथी विचारधाराओं से उत्पन्न होता है। ये विचारधाराएं एक ऐसा ढांचा प्रदान कर सकती हैं जो कुछ उद्देश्यों को प्राप्त करने के साधन के रूप में हिंसा को वैध बनाती है, जिससे उनका मुकाबला करना मुश्किल हो जाता है।
ऐसा देखा गया है कि कई मामलों में सामाजिक-आर्थिक असमानताएं भी आतंकवाद को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। अवसरों और आय की कमी आतंकवाद के विस्तार में ईंधन का काम करती है। बहुत सारे युवा हताशा के कारण इस रास्ते पर आगे बढ़ जाते हैं।
जहां एक ओर वैश्वीकरण और प्रौद्योगिकी का फायदा विश्व में रह रहे आम लोगों को मिला है तो वहीं इसका फायदा आतंकवादियों ने भी भरपूर उठाया है। आज के युग में इंटरनेट नए आतंकवादियों की भर्ती और कट्टरपंथ के लिए एक शक्तिशाली उपकरण बन गया है, जिसके माध्यम से चरमपंथी अब विश्व में अपनी पहुंच स्थापित कर चुके हैं।
आतंकवाद का प्रभाव विश्व के ज्यादातर देशों में है। कई देशों में तो आतंकवाद इस कदर हावी है कि वहां पर लोगों का जीना दूभर हो गया है। आतंकवाद का कहर अर्थव्यवस्थाओं, अंतर्राष्ट्रीय संबंधों और सुरक्षा की भावना को प्रभावित करता है।
आतंकवाद के कारण देशों की आर्थिक गतिविधियां बाधित होती हैं। इससे विदेशी निवेश प्रभावित होता है। निवेशक आतंकवाद प्रभावित देशों से दूरी बनाने लगते हैं। पर्यटन पर नकारात्मक असर पड़ता है और देशों के महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे को नुकसान पहुंचता है। आतंकवाद उन्मूलन के लिए विभिन्न देशों की सरकारों को भारी रकम खर्च करनी होती है। जिससे सरकारों पर वित्तीय बोझ बढ़ता है।
आतंकवाद समाज पर एक स्थायी निशान छोड़ता है। आतंकवाद से लोगों में भय फैलता है, जिससे लोग चिंतित रहते हैं। हमेशा डर के माहौल में जीने से जीवन जीने की गुणवत्ता में कमी आ सकती है।