नई दिल्ली।सर्दियां शुरु होते ही सरकार रैन बसेरों की व्यवस्था में लग जाती है।कहीं सरकारी ख़र्च पर अलाव जलाए जाते हैं तो कहीं संस्थाओं द्वारा कंबल बांटे जाते हैं।ऐसा लगभग हर साल होता है,लेकिन ये भी सच है कि बावजूद इसके बहुत से लोगों को ख़ुले आसमां तले सोना ही पड़ता है।इनमें बड़ी संख्या बाहर से आए दिहाड़ी मज़दूरों,छोटे कामगारों की होती है,जो सपनों के इस शहर में रोज़ीरोटी कमाने दिल्ली चले आते हैं।
इनसे इतर एक बड़ी संख्या उन लोगों की भी है,जो कभी अपना तो कभी अपनों का इलाज करवाने दिल्ली का रुख करते हैं।एम्स अस्पताल बहुतों को जीने की आस दिलाता है। जब अपने गांव,शहरों के छोटेमोटे अस्पताल हाथ खड़ा कर देते हैं तो आंखों में सपना पलता है चलो मेडिकल में दिखा आएं।एम्स पहुंचते ही हक़ीक़त का आईना दिख जाता है।ये कोई ऐसा अस्पताल नहीं है,जहां तुरत-फुरत इलाज शुरु हो जाए,न ही इस बात की कोई गारंटी है कि एक तयशुदा समय पर इलाज मिल भी जाएगा या नहीं।ऐसे में मरीज़ करें तो क्या करें।अग़र डॉक्टर ये कहे कि 15 दिन बाद आना तो मरीज़ समेत उसके घरवाले भला जाए तो कहां जाएं।अब जो कुछ संपन्न हैं वे किसी सस्ते होटेल या धर्मशाला जैसी जगहों पर रुक जाते हैं,लेकिन परेशानी उन लोगों को ज़्यादा होती है, जिनकी जेब में गांधी कम होते हैं।
एम्स के बाहर खुले में रह रहीं बिहार के कटिहार से आई महिला बताती हैं कि मेरा लड़का मंदबुद्धि है,डॉक्टर ने देख तो लिया,लेकिन अब जनवरी के पहले हफ्ते में दोबारा बुलाया है। अब हम कहां जाएं, इतने पैसे नहीं कि कहीं होटल में रुक जाएं,सो यहीं पड़े रहते हैं। बगल में टॉयलेट है, 20 रुपैया देकर वहीं नहा-धो लेते हैं।हमने पूछा,आपका बच्चा अभी कहां है। महिला ने ज़मीन पर सोए एक बच्चे की ओर इशारा कर कहा, इसी का इलाज करवाने आए हैं।यानी खुले में मरीज़ और तीमारदार एक-साथ रह रहे हैं।
इटावा से आए सुभाष ने बताया कि हमें अगले सप्ताह बेटे को फिर दिखाना है,अब कहां वापस लौटें सो यहीं रह रहे हैं। हमने पूछा- बीमारी क्या है,उन्होंने बताया कि दिल का ऑपरेशन होना है,अब पता नहीं कब डेट मिलेगी।लंबी डेट मिली तो वापस लौट जाएंगे।वैसे तारीख़ पर तारीख़ केवल अदालतें नहीं देतीं,अस्पताल भी ये रस्म निभाते हैं।वहीं एक बाबा जी भी सड़क किनारे बैठे थे।किसी ने मज़ाक में कहा,कंबल बंट रहे हैं।बाबा जी चैतन्य हो उठे,ढूंढने लगे कहां कंबल बांटने वाले लोग हैं।
महिलाएं सुरक्षा के नाम पर दीवार के कोने में अपना बिस्तरा लगा लेती हैं। रात में नशा करने वाले सबसे ज़्यादा परेशान करते हैं। उनसे निपटने का झंझट सो अलग़।बेदिल कही जाने वाली दिल्ली की सबसे अच्छी बात ये हैं कि यहां रहे रहे अधिकतर लोगों ने यही बताया कि यहां सुबह-शाम कुछ संस्थाओं के लोग हमें खाना दे जाते हैं। कुछ ने कहा कि कई बार कुछ लोग हमें कंबल भी दे जाते हैं। वैसे यहां रह रहे लोग भिखारी नहीं हैं।बल्कि देश के एक बड़े अस्पताल में इलाज करवाने वाले वे मजबूर लोग हैं,जिनको लगता है जैसे यहां सबका इलाज हो जाएगा।अलादीन के चिराग़ की तरह कोई जिन्न निकलेगा हमें ठीक कर देगा और आनन-फानन में हम बिल्कुल ठीकठाक होकर अपने घर चले जाएंगे।
अब बड़ा अस्पताल किसका-किसका इलाज करे।यहां तो ग़रीब भी पहुंचता है और बड़े-बड़े थैलीशाह भी,पर उनको इतना नहीं भटकना पड़ता,उन्हें समय पर इलाज मिल जाता है।ये कहानी सिर्फ़ अकेले एम्स की नहीं है।दिल्ली के हर बड़े अस्पताल में कमोबेश यही नज़ारा है।
मुझे याद आते हैं सरकारी अस्पताल के वे तीमारदार, जो अक्सर मरीज़ को दिए गए खाने में से अपने भी कुछ कौर निकाल लिया करते थे।अब जेब में पैसे कम हों तो क्या करें, ख़ुद के खाने पर ख़र्च करें या दवा ले आएं।अक्सर निम्न वर्गीय परिवार के लोग अस्पतालों के बाहर इसी दुविधा में जीते हैं, अपने पर ख़र्च करें या दवा पर।मैं हर बार सोचता हूं कि शायद अब कुछ बदलेगा,लेकिन तमाम कोशिशों के बाद भी स्थिति जस की तस दिखती है।