देहरादून के युवा उद्यमी विवेक छाबड़ा एक सफल व्यवसायी हैं। हिमाचल में जन्मे और चंडीगढ़ से उच्च-शिक्षा प्राप्त विवेक छाबड़ा, विदेशों में सामान निर्यात करने से लेकर विभिन्न कंपनियों के लिए जॉब वर्क भी करते हैं। देहरादून के औद्योगिक शहर सेलाकूंई में विवेक छाबड़ा की अपनी दो फ़ैक्ट्रियाँ हैं। इसके अलावा हाल ही में आपने सृष्टि प्लास्टो कंपनी में निदेशक के तौर पर पैकेजिंग का काम भी शुरु किया है। प्रस्तुत है वणिक टाइम्स के लिए विवेक छाबड़ा और मनोज बिसारिया की बातचीत के कुछ प्रमुख अंश।
प्रश्न- आपने अपने करियर की शुरुआत कैसे की?
विवेक- ये 1995 की बात है। मेरा कॉलिज का अंतिम वर्ष था। एक दिन हम दोस्तों में चर्चा चल पड़ी कि अब आगे क्या करना चाहिए। सब दोस्तो की राय या कहें सपने अलग-अलग थे। कोई हायर स्टडीज़ में जाना चाहता था, किसी को नौकरी करनी थी और जो मेरा सबसे क़रीबी दोस्त था, वह विदेश जा रहा था। लेकिन मैं थोड़ा दुविधा में था कि मैं क्या करूँ क्योंकि किसी की नौकरी करना शायद मेरे वश की बात नहीं थी।
मेरे एक दोस्त के चाचा जी एक्सपोर्टर थे, जो देश-विदेश में अपना माल भेजते थे तो दोस्त ने कहा कि मेरे चाचा जी को एक प्लास्टिक आइटम की ज़रूरत है, जिसके लिए डाई की ज़रूरत होती है। अग़र तुम वो डाई बनवा सको तो वह तुम्हें इसका ऑर्डर दिलवा देंगे। अब (हंसते हुए) मुझे उस समय नहीं मालूम था कि ये डाई क्या बला होती है। मैं जब उनसे मिला तो उन्होंने मुझे प्लास्टिक का पीस दिखाया और कहा कि इसकी डाई बनवानी है। इस पार्ट का इस्तेमाल किसी इलैक्ट्रिक आइटम में किया जाता था।
मैं चंडीगढ़ से दिल्ली आ गया जहाँ मेरे कुछ रिश्तेदार रहते थे। फिर एक कारीगर से उन्होंने मेरी बात करवाई। मुझे लगा कि डाई कुछेक रुपयों में बन जाती होगी, लेकिन जब कारीगर ने पूरे पचास हज़ार रुपए मांगे तो मुझे बड़ा झटका लगा। 1995 में पचास हज़ार मुझ जैसे छात्र के लिए बड़ी बात थी।
प्रश्न- फिर आपने रुपयों का इंतज़ाम कैसे किया?
जवाब- मैं पहले दोस्त के चाचा जी से मिला, मैंने उनसे कुछ अडवांस रुपए मांगे लेकिन उन्होंने साफ़ मना कर दिया। उसकी वजह ये थी कि कई लोग उनसे पहले ही पैसे लेकर जा चुके थे, लेकिन उनमें से कोई भीर त वैसी डाई नहीं बनवा पाया था जैसी कि उन्हें ज़रूरत थी। लेकिन उन्होंने इस बात की गारंटी दी कि अग़र मैं डाई बनवाने में क़ामयाब रहता हूँ तो वह माल बनवाने के लिए मुझे रुपए दे देंगे।
मेरे आगे ये एक बड़ी चुनौती थी। फिर मैंने अपने पापा को बताया तो उन्होंने मुझे पचास हज़ार रुपए दिए। इसके बाद वापस दिल्ली आकर मैंने डाई बनवाई।
प्रश्न- डाई क्या समय पर बन पाई!
जवाब- अब हर काम में थोड़ी-बहुत रुकावटें तो आती रहती हैं, मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। डाई बनती और बिगड़ती रही पर कई दिनों की बारंबर कोशिशों के बाद आख़िरकार हम डाई बनाने में क़ामयाब हो पाए। दोस्त के चाचा जी ने भी अपना वादा निभाया और उन्होंने मुझे माल बनाने के लिए एक साथ तीन लाख रुपए नकद दे दिए। उस समय मेरे पास अपना कोई बैंक अकाउंट तक नहीं था, इतनी बड़ी रकम को एक-साथ देखना मेरे लिए किसी सपने के सच होने जैसा था। भगवान की कृपा रही और उसके बाद मैंने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
प्रश्न- आप कई तरह के काम कर रहे हैं और हाल ही में आप सृष्टि प्लास्टो कंपनी में निदेशक के तौर पर भी जुड़े हैं, तो इस कंपनी में क्या बनाया जाता है?
जवाब- हम लोग प्लास्टिक के पॉलिबैग्स बनाते हैं जिसकी इंडस्ट्री में काफ़ी डिमांड है। इसके अलावा कंपनियों को पैकेजिंग के लिए भी प्लास्टिक शीट्स की ज़रूरत होती है, हम उसे भी बनाते हैं। हम इस समय देहरादून के अलावा बाहर की कई बड़ी कंपनियों के लिए भी काम कर रहे हैं जिसमें प्लास्टिक की प्रिंटिंग भी शामिल है।
प्रश्न- सरकार प्लास्टिक पर प्रतिबंध भी लगा रही है, ऐसे में क्या इस तरह के व्यापार में कोई ख़तरा नहीं है?
जवाब- नहीं, सरकार जिस तरह के प्लास्टिक पर बैन लगाती है, वो अलग़ प्रकार के होते हैं। हमारी कैटेगरी उससे अलग़ होती है। अब इस क्षेत्र में भी कई परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं। ऐसे केमिकल्स का इस्तेमाल भी प्लास्टिक में होने लगा है जो एक निश्चित अवधि के बाद प्लास्टिक को ख़ुद ही गलाना शुरु कर देते हैं, इससे प्लास्टिक स्वयं नष्ट हो जाता है और प्रकृति पर कोई प्रतिकूल असर भी नहीं पड़ता।